Thursday 23 November 2017

फिल्म ‘दंगल’ के गीत : भाव और अनुभूति – डॉ.ममता धवन

October 15, 2017

आजकल का दौर तीव्रता से कहानी कहने का चल रहा है। फिल्म प्रदर्शित करने की समय अवधि कम होती जा रही है। फिल्म के इस कम समय को बनाए रखने का पूरा असर फिल्म में गीतों के स्थान और संख्या पर दिखता है। गीतों के लिए स्थितियां बननी बंद हो गयी हैं। कुछ फ़िल्में तो गीत शून्य आने लगी हैं। ऐसे में दंगल फिल्म में मौजूद गीत अपनी ओर आकर्षित करते हैं। भले ही इनकी संख्या कम है लेकिन अपने विषयों के कारण ये बहुत लोकप्रिय हुए हैं। यह फिल्म बायोपिक फिल्म है जो महावीर सिंह फोगाट की आत्मकथा ‘अखाड़ा’ पर बनी है जिसमें कुश्ती क्षेत्र में अपना नाम करने वाली गीता और बबिता के जीवन और उनके पिता के संघर्ष को शब्द और दृश्य दिए गए हैं।

फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत है – ‘बापू सेहत के लिए तू तो हानिकारक है’. यह गीत अपने दिलचस्प बोलों के कारण बच्चे-बच्चे की जुबां पर है। पूरा गीत न केवल गीता बबिता बल्कि सभी बच्चों को उनकी अपनी व्यथा कहता-सा लगता है। गीत हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और हरियाणवी शब्दों का बेहतरीन संयोजन है। सेहत, हानिकारक, बापू, हालत, वाहनचालक, जैसे हिंदी शब्दों के साथ टार्चर, टॉफी, टाटा, बॉडी, मोगाम्बो, डिसिप्लिन, पिकनिक जैसे अंग्रेजी शब्द भी सुनाई देते हैं। हरियाणवी शब्दों जैसे कि तन्ने, घना, बापू का प्रयोग पूरे गीत को हरियाणवी भाषा के गीतों के करीब ले जाता है। ख़ुदकुशी और किस्मत जैसे उर्दू शब्द भी गीत में शामिल किया गया है। यह गीत बैकग्राउंड में चलता है। गीता बबिता की रोजमर्रा की निरंतर तैयारी दिखाने के लिए बड़े ही रोचक तरीके से इस गीत को फिल्माया गया और फिल्म में गीत विधा का बेहतरीन प्रयोग किया गया. फिल्म का दर्शक स्क्रीन पर चल रहे इस गीत जो कि गीता बबिता के हिटलर बने बापू की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है; से गीता बबिता की शिकायत भरे बोलों का मज़ा भी लेता है, वहीँ अपनी बेटियों के भविष्य को गढ़ते हुए कर्मठ और समर्पित पिता को भी महसूस करता है। महावीर फोगाट अपने आस-पास के स्त्री विरोधी वातावरण की परवाह किये बगैर अपनी बेटियों के भविष्य को बेफिक्री से जब तैयार कर रहा होता है तो तसलीमा नसरीन के ये पंक्तियाँ याद आने लगती हैं –“ यह अच्छी तरह याद रखना/ तुम जब घर की चौखट लान्घोगी,/ लोग तुम्हें टेढ़ी मेढ़ी नज़रों से देखेंगे./ जब तुम गली से होकर गुज़रोगी,/ लोग तुम्हारा पीछा करेंगे, सीटी बजाएंगे, जब तुम गली पार करके सड़क पर पहुँचोगी,/ लोग तुम्हें चरित्रहीन कह देंगे./ तुम व्यर्थ हो जाओगी, अगर पीछे लौटोगी/ वरना जैसी जा रही हो, जाओ.”

इस गीत का मुखड़ा है – ‘औरों पे करम अपनों पे सितम.. ऐ बापू हम पे ये ज़ुल्म न कर.. ये ज़ुल्म न कर’. यह मुखड़ा 1968 में बनी फिल्म ‘आँखें’ के गीत; ‘गैरों पे करम अपनों पे सितम…,ऐ जाने वफ़ा ये ज़ुल्म न कर….ये ज़ुल्म न कर….’ की तुरंत याद दिलाता है। फिल्म दंगल के इस गीत के मुखड़े को रिक्रिएट किया जाना कहा जा सकता है। दूसरा गीत है- ‘ऐसी धाकड़ है …धाकड़ है।.. ’. कहना चाहिए कि स्त्री के बाहरी सौंदर्य पर गीत रचे जाने की अधिकता में बहुत ही कम या न के बराबर गीत ऐसे मिलेंगे जो स्त्री की कर्मठता तथा उसके भीतर छिपी हुई क्षमता को उजागर करते हैं। ऐसे गीतों को स्त्री के प्रति सामाजिक बदलाव करने की भूमिका में हमेशा याद किया जाता रहेगा। बहुत संभव है कि अब लोग ‘शीला की जवानी’ और ‘बेबी डॉल’ सोने की’ की बजाय अब धाकड़ स्त्रियों को पसंद करने लगेंगे. लड़कियां अब सुंदर दिखने की ही कोशिश में नहीं रहेंगी क्यूंकि यह फिल्म स्त्री की सुन्दरता के नए मानदंडों को गढ़ती है। होंठों पर लिपस्टिक लगा लेना, बाल स्टाइल करवा लेना और स्टाइलिश कपडे पहनकर स्त्री सुंदर नहीं पर उपभोग की वस्तु ज्यादा दिखती है। वही स्त्री सुंदर है जो अपने जीवन का एक उद्देश्य निर्धारित करती है और पूरी ईमानदारी से अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्पित है। वही स्त्री सुंदर है जो अब अपने जीवन में सफल है। वही स्त्री सुंदर है जो सामाजिक रुढियों से आगे निकलकर नयी पीढ़ी के लिए भी सफलता के रास्ते निश्चित करती है। यह गीत औरत के वीरत्व को शब्द देता है। स्त्री के सौन्दर्य, उसके भाव  से आगे बढ़कर उसमें वीरत्व को दिखने की प्रशंसनीय पहल यह गीत करता है। पुरुष समाज को चुनौती देता यह गीत रैप वर्ज़न में है और इसे स्वयं आमिर खान ने गाया है। इस से पहले आमिर ने 1998 में बनी  फिल्म गुलाम का ‘आती क्या खंडाला’ गीत गाया था जो कि काफी लोकप्रिय हुआ था। आमिर की ये खासियत है कि वो अपनी फिल्म के साथ, अपने लुक के साथ, अपनी भाषा के साथ नए-नए प्रयोग करते रहते हैं। आमिर; शाहरुख़ और सलमान की तरह टाइप्ड हीरो नहीं हैं। वे अपनी हर अगली फिल्म में स्वयं अपनी ही पिछली फिल्म को चुनौती देते नज़र आते हैं। आमिर की प्रतियोगिता उनके अपने आप से है यही कारण है कि वे किसी अवार्ड फंक्शन में नहीं जाते। उनकी फिल्में सामाजिक उद्देश्यों के साथ चलते हुए भी भरपूर मनोरंजन करती हैं।

पिता और पुत्री के बीच के बड़े ही संवेदनशील रिश्ते को पकड़ने की कोशिश करती है यह फिल्म महावीर सिंह अपनी बेटियों के भविष्य को गढ़ना चाहता है और देश के लिए कुश्ती में गोल्ड मैडल लाने के लिए उन्हें तैयार करना चाहता है और कोशिश भी करता है। खुद कोच की भूमिका निभाता है और कुश्ती की सभी तकनीकें और चालाकियां अपनी बेटियों को समझाता है। बेटी की इच्छा पर उसे नेशनल स्पोर्ट्स अकादमी भी भेजता है,अपनी नोकरी तक छोड़ देता है। नया कोच, नया वातावरण की ताम-झाम गीता को बेहद आकर्षित करती है। वो देखती है कि इस तरह के वातावरण में भी कुश्ती की तैयारी हो सकती है। उसे लगता है कि चटनी और गोलगप्पे खाकर, सिनेमा देखकर भी कुश्ती की तैयारी की जा सकती है। जब गीता घर वापिस आती है तो अपने पिता को अपने कोच से कमतर आंकती है और अपने बाल बढाकर अनकहा विरोध जताती है। पिता और बेटी के बीच इसी टकराहट से उपजा पिता के भीतर की पीड़ा की पृष्ठभूमि पर बहुत ही भावुक गीत चलता है जिसके बोल हैं।..’झूठा जग रेन बसेरा..सांचा दर्द मेरा..’

जिस दौर में सीच्युएशनल गीत लिखे जाने बिलकुल खत्म हो गये हों ऐसे में ‘दंगल’ फिल्म अपने गीतों के लिए पर्याप्त स्थितियां भी ढूँढती है और सही तथा उचित समय, भाव, संगीत एवं आवाज़ के साथ फिल्म की लोकप्रियता को बढाती भी है।



डॉ.ममता धवन
मैत्रेयी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली

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मजदूर की मजबूरी


    जिस देश के राष्ट्रपिता ने जीवन में श्रम को सर्वाधिक महत्व दिया और पूरी दुनिया का ध्यान इस बात की ओर खींचा कि परिश्रम मेहनत करने वाला मजदूर ही वास्तव में  किसी देश के निर्माण की नींव तैयार  करता है .उसी देश में आज तक मजदूरों ,कामगारों की स्थिति शोचनीय बनी हुई  है. देश के कई सीमान्त क्षेत्रीय इलाकों में मजदूरों की पीड़ादायक स्थिति को देखा जा सकता है. वस्तुतः  जिस मजदूर शब्द को गौरवान्वित  होना चाहिए था उसकी व्यंजना में निरीहिता, मजबूरी, भूख, बेहाली पैबस्त हो गया.  मजदूर वह है जिसके पास संपत्ति नहीं है ,सुख सुविधाएँ नहीं हैं ,अपनी और अपने परिवार की दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए दिन भर मेहनत  मुशक्कत करने पर भी जो केवल दो वक्त की रोटी ही जुटा पाता है. मजदूर वह है जिसका भविष्य सदा अनिश्चित एवं असुरक्षित रहता है. बड़े- बड़े उद्योगपति अपने कारखानों ,मिलों को चलाने  के लिए इन मजदूरों के श्रम को खरीदते हैं और पगार के रूप में उनके श्रम की भरपाई करते हैं. किन्तु श्रम की यह भरपाई जो मजदूरी के रूप में दी जाती है मजदूर के लिए ही पर्याप्त नहीं होती तो उसी में उसके परिवार का पालन पोषण किस तरह संभव है? एक और दिक्कत यह है कि मजदूर को कभी भी काम पर रखा और निकला जा सकता  है . इस से यह होता है कि उसके जीवन में कुछ भी प्रायोजित  नहीं  हो पाता  .जो काम  आज है वो कल नहीं  भी हो सकता. यह अस्थिरता मजदूर वर्ग को कभी भी चिंता मुक्त नहीं रहने  देती और नागवारा हालातों को बर्दाश्त करने के लिए भी विवश करती है. इसके पीछे कारण यह है कि जिस काम को वे करते हैं उसके लिए किसी विशेष प्रशिक्षण की जरुरत नहीं होती. इस आसानी से सीखे जाने वाले काम  को करने के लिए मजदूरों की पर्याप्त मात्रा में संख्या उपलब्ध रहती है .यही स्थिति उनके श्रम के मूल्य को भी कम करती है.दूसरी तरफ उद्योग करने वाले व्यक्ति को भी इनकी दक्षता से कोई सरोकार नहीं होता .उसका जोर सस्ते मजदूरों  को ही रखने में अधिक रहता है .यही पूंजीवादी व्यवस्था है .इस पूंजीवादी व्यवस्था का लक्ष्य है कम से कम लागत  पर अधिक से अधिक लाभ कमाना .इसका अंतिम लक्ष्य है _ श्रम द्वारा उत्पादित संपत्ति का संचय करना और इसपर  अपना नियंत्रण बनाये रखना .वस्तुतः राष्ट्रीय  और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर पूँजी अपने हित के लिए श्रम का फायदा उठाती है .यह व्यवस्था पूरी तरह से श्रम को लूटती है .अतिरिक्त मूल्य यद्यपि मजदूरों का होता है किन्तु फिर भी मजदूरों को इसका लाभ नहीं मिलता और सारा मुनाफा उद्यमी कमा ले जाता है .अतः लूटा जाना तो है उसमें कम और ज्यादा लुटे जाने की स्थिति हो सकती है .ज्यादा लुटे जाने पर असंतोष गहरा सकता है और क्रांति की स्थिति पैदा हो सकती है .कम लुटे जाने वाले मजदूर अपने रोजगार की सुरक्षा (किसी भी समझौते  पर)से आश्वस्त हैं  और मिलने वाले वेतन से भी प्रसन्न हैं. ऐसी स्थिति उद्योगपतियों द्वारा जानबूझकर निर्मित की जाती है जिस से कि मजदूर किसी एक मुद्दे पर एकजुट हो पाएं .ऐसा श्रमिक वर्ग दूसरे श्रमिकों से खुद को बेहतर स्थिति में महसूस करता  है और उनके साथ पर्याप्त दूरी बनाकर पूंजीपतियों के साथ अधिक से अधिक नजदीकी स्थापित करने का प्रयास करता है .श्रमिकों के एक हिस्से का पूँजी के साथ बढ़ता मेलजोल  पूंजीवाद के लिए सुखकर और लाभकारी  स्थिति है क्योंकि यही वह स्थिति है जब उसे किसी भी संयुक्त मोर्चे के भय के बिना सभी मजदूरों को लूटने में आसानी होती है.
                                             भारत के संविधान में अनुच्छेद१४ से २९ तक सभी के लिए समता ,समान अवसर न्याय का प्रावधान है जिसे देश के प्रत्येक हिस्से में क्रियान्वित  करने का दायित्व राजनीतिक जन प्रतिनिधियों का होता है.अपने उज्ज्वल भविष्य की कामना लिए समाज का मजदूर और बेसहारा वर्ग इन्हें वोट देकर सत्तासीन करता है किन्तु राजनीतिक पार्टियां इन मजबूर वर्गों को इनकी वर्तमान दयनीय स्थिति से बाहर निकालने  का झांसा भर देती  हैं और इनके वोट के आधार पर बहुमत प्राप्त करती हैं. बहुमत प्राप्ति के बाद इन वर्गों की मजबूरियों को दरकिनार कर दिया जाता है यही वजह है कि आज भी हालात बिलकुल वही बने हुए हैं जो पहले थे .मजदूरों के हालातों पर चिंता जताने वाला तथा उनके मानवाधिकारों की रक्षा का आश्वासन देने वाला सत्ताधारी वर्ग उनकी पीड़ाओं को शब्द देकर उनके प्रति सहानुभूति को भुनाता है .यही सत्ता का प्रयोजन है जो आसानी से सिद्ध भी हो जाता है .
                                           इस मजदूर होने की स्थिति को यदि अंतरराष्ट्रीय फलक पर  देखा जाए तो इसकी ऐतिहासिकता को लेकर एक बात जरूर सामने आती है कि  यूरोप और अमरीका  ने अन्य देशों को अपना गुलाम बनाकर ,उन्हें अपना उपनिवेश बनाकर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया .दास  प्रथा ,दासों  के व्यापार और उपनिवेशवाद को बनाये रखने के लिए जिन तरीकों को इजाद किया गया और व्यवहार   में लाया गया था उनका आज यूरोप  के देशों में इस्तेमाल किया जा रहा है.सच्चाई यह है कि साम्राज्यवादी देशों के मजदूर भी मानव समुदाय के रूप में तब तक पूरी तरह मुक्त  नहीं होंगे जब तक अर्धउपनिवेशों नवउपनिवेशों की जनता को पूरी तरह मुक्ति नहीं मिलेगी . दासों के व्यापार,दासों के श्रम और औपनिवेशिक श्रम के जरिये ही यूरोप और अमरीका ने पूँजी का संचय किया .यही स्थिति आज भी है .ये देश  स्वयं को विकसित और प्रभुत्व की स्थिति में ला चुके हैं.पश्चिमी पूँजी के प्रचारक यही आभास देते हैं कि जैसे उनकी पूँजी ही तीसरी दुनिया में समृद्धि ला रही है. कुछ इस तरह का आभास फैला हुआ है कि एशिया और अफ्रीका को यूरोप का आभारी होना चाहिए .इनकी प्रभुत्वकारी स्थिति के चलते ही विकासशील देशों के सत्ताधारी और अभिजात वर्ग इस पश्चिमी पूँजी के मायाजाल की ओर आकर्षित होते हैं और  अपने ही देश को लूटने के लिए तैयार हो जाते हैं .'डॉलर' अन्य सभी देशों  की मुद्रा का अवमूल्यन करता है .मुद्रा का यह अवमूल्यन  इन देशों के श्रम और सेवाओं का भी अवमूल्यन  निर्धारित करता है. बहरहाल .मार्क्स इसी असमानता की बात करते हैं .समाज को वे दो वर्गों में विभाजित देखते हैं_शोषक वर्ग जिसमें जमींदार,मिल मालिक,पूंजीपति,उद्योगपति ,धनाढ्य वर्ग के लोग हैं तथा दूसरा शोषित वर्ग जिसमें किसान,श्रमिक,मजदूर ,कामगार,गरीब आते है. शोषक वर्ग दूसरे वर्ग पर अत्याचार करने की भूमिका में सदैव रहता है .मार्क्स सामाजिक,राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर समानता और साम्यवाद की स्थापना चाहते थे जिससे मजदूर वर्ग को भी सम्मान और महत्व मिले सके.
                                                   रूस में होने वाली लाल क्रांति ने लगभग सभी देशों में मजदूरों को नयी चेतना से प्रेरित किया .इस लाल क्रांति ने मजदूर को यह आश्वासन दे दिया कि वे चाहें तो एक होकर अपने पर होने वाले जुल्मों को रोक सकते हैं .मजदूरों की इस जाग्रति से लगभग सभी देशों की सरकारें भी सचेत हो गईं .१९१९ में भारत सरकार ने अपने प्रांतीय अध्यक्षों को चेतावनी देते हुए कहा था कि अब मजदूर अपनी आवश्यकताओं और  शक्ति के प्रति अधिक सजग हो रहे है और इस से उनकी संगठन क्षमता का आभास होता है .इस तरह मजदूरों ने अपने पक्ष में कई वैधानिक कानूनों को तैयार करवाने के लिए जो क्रांतियां शुरू कीं उनके परिणामस्वरूप  ही फैक्ट्री अधिनियम,श्रमिक प्रतिपूर्ति अधिनियम, ट्रेड यूनियन अधिनियम, मजदूरी भुगतान अधिनियम जैसा संशोधित प्रारूप सामने आया .इसी के परिणामस्वरूप एक और परिवर्तन यह भी हुआ कि लगभग सभी देशों ने अपने संविधान में मानवाधिकारों को प्रतिपादित किया. भारतीय कानून में भी कर्मचारियों,कामगारों को वे  सब सुविधाएँ उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान है जो व्यक्ति के स्वास्थ्य एवं अनुकूल वातावरण में कार्य करने के लिए आवश्यक है.उदहारण के लिए फैक्ट्री एक्ट में प्रावधान किया गया कि कार्य अथवा परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं  से कर्मचारियों की रक्षा की जायेगी.कर्मचारियों को ऐसी अवस्था में रखा जायेगा जिससे वे शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न का शिकार हों. किन्तु इन प्रावधानों के बाद भी स्थिति निराशाजनक ही बनी  हुई  है .कितनी फैक्ट्रियां,औद्योगिक संस्थान ,मिल कारखाने तथा सरकारी और अर्धसरकारी कार्यालय ऐसे है जहाँ काम  करने वालों को न्यूनतम मानवीय सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं. जहाँ उनके मानवीय अधिकारों की खुली अवहेलना की जा रही है.
                                                     कई सरकारी नीतियां कामगारों,मजदूरों की स्थितियों को सुधारने के लिए बनाई जाती हैं पर यही वर्ग उन नीतियों से मिलने वाले लाभ से कोसों दूर रहता है. हाल ही में 'मनरेगा' (रोजगार की गारंटी के लिए लाया गया कार्यक्रम) का जो खुलासा उभरकर सामने आया वह सरकारी नीतियों एवं प्रावधानों की उड़ती धज्जियों और उसकी हकीकत का ज्वलंत उदहारण है.  ऐसे कार्यक्रम संचालनकर्ताओं की लूट घसोट और कमाई का जरिया बन जाते है . इसी तरह साल २०१० के अगस्त माह में राजस्थान के टाक जिले में कई मजदूरों को १०० रुपए की जगह एक रुपया देने का मामला प्रकाश में आया. स्वर्गीय राजीव गाँधी ने भी  कहा था कि गरीबों  के कल्याण के नाम पर जो १०० रुपए सरकारी कोष से निकाले जाते हैं उसके १५ रुपए भी उन तक नहीं पहुँच पाते. मजदूरों की इन दयनीय स्थितियों में स्त्री मजदूरों और बाल मजदूरों की स्थिति तो और भी बदतर है. स्त्री मजदूर को समान घंटो में पुरुष मजदूर से कम वेतन मिलता है . स्त्री मजदूर  इस आर्थिक शोषण के साथ- साथ  दैहिक शोषण का शिकार भी होती है और उसकी कहीं सुनवाई भी नहीं .बाल मजदूर जिनके उम्र खेलने और पढ़ने की होती है, जिनका मन बालसुलभ चंचल होता है, उनपर भी आजीविका के लिए मजदूरी करने का बोझ लाद दिया जाता है जिससे  उनके बाल मनोविज्ञान पर क्षति ग्रस्त प्रभाव पड़ता है . सड़क पर काम  करते मजदूरों के बच्चों  को ईटें उठाते कई बार  देखा जा सकता है.
                                                     जिस देश में १० फीसदी लोग दोनों समय वातानुकूलित कमरों में बैठकर बोटी नोच रहे हों और वहाँ का मजदूर वर्ग कठोर शारीरिक श्रम से रोटी कमाने के लिए तरस रहा हो ऐसे देश में मजदूर दिवस की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग सकता है .वस्तुतः १मई को मजदूर दिवस की सार्थकता तभी सिद्ध हो सकती है जब मजदूरी की दरों का मानिकीकरण हो ,मजदूरों की स्थितियों में एकरूपता आए ,उन्हें समानता का सम्मान मिले तथा उनके स्वास्थ्य ,आवास और उनके कल्याण पर खर्च करने के लिए भारी रकमों की स्वीकृति की सरकारी योजनाओं में उन्हें भी भागीदार बनाया जाए .

                                                                                                           ममता धवन